Saturday, December 6, 2008

दिल की लहरों को जब किनारा नहीं मिलता, तो कितनी गहरी बातें बन जाती हैं

दिन के उजाले मैं जो बस एक आवाज़ है, रात होते ही वोआहें बन जाती हैं।


पीछे मुर कर देखो तो ज़िन्दगी कितनी अलग सी दिखती है

क्या हो सकता था, क्या हुआ, क्या नहीं, इस सबकी इक झलक सी दिखती है।

जो कभी मिला ही नहीं, उससे बिछड़ने पर भी यादें तड़पती हैं

तकदीर मनो या तदबीर, की होते होते कितनी मुलाकातें रह जाती हैं।


जो उस राह निकलते तो क्या होता, ये जानने को दिल बेताब होता है

क्या अच्छा हुआ, क्या बुरा, ऐसी एक एक बात का हिसाब होता है।

वोह अनदेखी अनजानी राहें, हमसे छुपकर क्या क्या सपने दिखलाती हैं

इतनी दूर आ गए की मुर भी नहीं सकते, दिल मैं बस वो चाहतें रह जाती हैं।

- स्मृती



आज यूंही मन में एक सवाल आया,
आज यूंही ख़ुद को सवालों से घिरा पाया।

क्या सूरज अंधेरे से डरता है जो रात के साए में जाके छुप जाता है?
या चांदनी को देख शर्म से लाल होता और पिघल जाता है?

क्या गरज गरज कर काले बादल इस धरती को डराते हैं?
या बूंदों के बिछड़ने पर रोते हैं, चिल्लाते हैं?

ये आंसू आंखों से चालक कर हमारे दिल का हाल बताते हैं?
या हमे उदास पाकर प्यार से हमे चूमते और सहलाते हैं?

कितने सवाल यूं तरस रहे हैं कि किसी ने उनका जवाब नहीं दिया,
और कितने ही राज़ यूं तरप रहे हैं कि किसी ने उनपर सवाल ही नहीं किया।

- स्मृती

Thursday, July 31, 2008

दिल की बात होंठों से सुना पाते तो क्या बात थी,
तुम्हे हाल-ऐ-दिल अपना बता पाते तो क्या बात थी।

पलके उठाकर हमने आंखों से कुछ जाताना चाहा,
पलकें झुकाकर दिल की गहराई को दिखाना चाहा।
तुम क्या जानो तुम्हे ही देख कर बिताई वो सारी रात थी,
हाथ मेरी और एक बार तुम बढ़ा लेते, तो क्या बात थी।

हमसे मत पूछो ये कैसे हुआ या कब हुआ,
पहली नज़र का था जादू या तुम्हे जाना जब तब हुआ।
न चाहते हुए भी तुम्हे दिल दे बैठे, तुम में वो बात थी,
इस चाहत का इज़हार तुमसे कर पाते, तो क्या बात थी.

काश कभी बिन बुलाए तुम मेरे पास आ जाओ,
सुनने को जो मैं बेचैन हूँ कुछ ऐसा कह जाओ।
कहो की तुम्हे भी कभी तो सताती हमारी याद थी,
यह ख्वाब मेरे जो सच हो पाते, तो क्या बात थी।

- स्मृती

दिल के किसी कोने मैं तू राज़ की तरह छुपा था

बंद आंखों के पीछे सैलाब की तरह छुपा था।

छुआ तो जाना की तू हवा का इक झोंका है

जिसपर जिंदगी लुटा दी, वोह बस मृगतृष्णा, इक धोखा है।

कब बादल गरजे, कब नैना बरसे, कब बारिश आई और चली गई

तुझे देखने को आँख जो खोली, वोह इक बूँद जो बाकी थी, चालक गई।

- स्मृती


लड़ती नहीं हैं लहरें ये, न करती हैं किनारे से कोई तकरार
बेखौफ़ उड़ान ये भरती हैं, ये नादान तो हैं बेकरार।
संग रहना चाहती हैं तट के, चाहती हैं उसे बेशुमार
जानती हैं यह मुमकिन नहीं, तो बस चूम आती हैं उसे बार बार।

- स्मृती


आज सोचा जिंदगी को इक नया मोड़ दूँ
आंखें कब से मेरी सूनी हैं उन्हें ख्वाब कुछ और दूँ।
राह मैं चलते लोग तो कई मिल जाते हैं,
कुछ रुकते हैं, कुछ यूँही साथ से गुज़र जाते हैं।
क्योँ न मैं भी रूककर उन थामे हुए कदमों पे गौर दूँ
सब से भाग लिया बहुत, अब ज़रा ख़ुद को किस्मत पे छोड़ दूँ।

- स्मृती